Menu
blogid : 3028 postid : 1110470

बीच बहस में राम और रावण

vakrokti
vakrokti
  • 33 Posts
  • 117 Comments

पिछले दिनों २२ अक्टूबर को दिल्ली के सीरीफोर्ट ऑडिटोरियम में आयोजित “२२७७ वां धम्म विजय दिवस समारोह” में शामिल हुआ, जिसमें थाईलैंड के राजदूत और श्रीलंका के लामा भी आये थे. यह दिवस इसलिए मनाया जाता है, क्योंकि २६२ ई.पू. इसी दिन चक्रवर्ती सम्राट अशोक ने शस्त्र त्याग कर बौद्ध धर्म को अपनाया था. बुद्धिस्ट इसे बुराई (हिंसा) पर अच्छाई (अहिंसा) की जीत के रूप में देखते हैं. इस समारोह में बातें तो बहुत सी हैं, लेकिन मैं यहाँ सिर्फ एक ही बात कहना चाहूंगा- हमें इतिहास को नए नजरिये से देखना चाहिए और इस पर बहुत सारा काम भी हुआ है लेकिन वह सब लोगों तक पहुंच नहीं पा रहा है.
करीब तीन साल पूर्व २०१२ में “जनसंदेश टाइम्स” के सम्पादकीय पन्ने पर इसी तरह का मेरा एक लेख प्रकाशित हुआ थाl इसमें कुछ तात्कालिक प्रसंग जरूर हैं लेकिन यह लेख मुझे आज भी बेहद प्रासंगिक लगता है-

बीच बहस में राम और रावण
——————————————-
ह्यभेरीमृदंगभिरूतं शंख, घोष विनादितम्, नित्यार्चित पवर्सुतं पूजितं राक्षसै सदा,
समुद्रमिव गंभीरं समुद्रसमनि: स्वनम्, महात्मनो महद् वेरम् महारत्रम् परिछदम्॥
यह श्लोक वाल्मीकि के ‘रामायण’ का है। इससे यह स्पष्ट है कि प्रात:काल में लंकानगरी पूजा, अर्चना, शंख और वेद ध्वनियों से गुंजायमान हो जाती थी। किसी भी देश के लिए गर्व करने लायक ऐसा अलौकिक वातावरण लंकाधिपति ने अपने देश में बनाया था। यहां एक सवाल उठता है कि जो रावण अपने उदात्त गुणों के कारण वाल्मीकि की नजर में ‘महात्मा’ था, वही लंकेश्वर तुलसीदास की रचना का पात्र बनते ही विकृत गुणों वाला राक्षस कैसे बन जाता है? ऐतिहासिक तथ्यों से छेड़छाड़ के बिना ऐसा मुमकिन नहीं है। जैन धर्म के कुछ ग्रंथों में रावण को प्रतिनारायण व समाज सुधारक माना गया है। तमिल रामायणकार ‘कंब’ उसे सद्चरित्र कहते हैं। सवाल फिर उठता है कि वह रावण ‘बुराई का प्रतीक’ कैसे हो गया? आज रावण पर सैकड़ों सवाल उठते हैं तो कोई बात नहीं लेकिन ‘राम’ पर राम जेठमलानी ने सवाल क्या उठाया, पूरे देश में बवंडर में उठ खड़ा हो गया। साधु-संतों सहित ‘रामनामियों’ ने जेठमलानी को पागल तक करार दे दिया तो कानपुर में ‘संदीप शुक्ला’ ने उनके खिलाफ सीएमएम ‘एनके पांडेय’ की अदालत में राम के खिलाफ टिप्पणी किए जाने का मामला (परिवाद) दाखिल कर दिया। 24 नवंबर 2012 को वादी का बयान दर्ज होगा। खैर, इन प्रकरणों ने एक बार फिर वास्तविक तथ्यों की तफ्तीश करने के लिए बुद्धिजीवियों-चिंतकों को विवश किया है।
देश के मशहूर वकील व भाजपा के राज्यसभा सदस्य राम जेठमलानी ने जब राम को बुरा पति कहा तो मुझे जरा भी अचरज नहीं हुआ। आखिर कोई कैसे एक आम आदमी के कहने पर अपनी गर्भवती पत्नी को निर्वासन दे सकता है? वर्तमान समय में भी ऐसा सोचना पाप माना जाता है। जेठमलानी अगर सच नहीं कह रहे होते तो भाजपा के एक अन्य तेज-तर्रार नेता विनय कटियार इससे इत्तेफाक यूं ही नहीं रखते। इन विवादों के बीच मुझे सुधा शुक्ला की लिखी एक कविता याद आई-
‘गर्भवती माँ ने बेटी से पूछा-
क्या चाहिए तुझे? बहन या भाई
बेटी बोली- भाई
किसके जैसा? बाप ने लड़ियाया
रावण-सा, बेटी ने जवाब दिया
क्या बकती है? पिता ने धमकाया
माँ ने घूरा
बेटी बोली, क्यूँ माँ?
बहन के अपमान पर राज्य, वंश और प्राण लुटा देने वाला
शत्रु स्त्री को हरने के बाद भी स्पर्श न करने वाला
रावण जैसा भाई ही तो हर लड़की को चाहिए आज
छाया जैसी साथ निबाहने वाली
गर्भवती निर्दोष पत्नी को त्यागने वाले
मर्यादा पुरुषोत्तम-सा भाई लेकर क्या करुँगी मैं?
और माँ
अग्नि परीक्षा, चौदह बरस वनवास और अपहरण से लांछित बहू की कातर आहें
तुम कब तक सुनोगी और
कब तक राम को ही जन्मोगी’।
देखा जाए तो वर्तमान समय में राम प्रत्येक भारतीय के आराध्य देव हैं। वे आदर्श पुरुष हैं, मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। उनकी तुलना में रावण को राक्षस, अत्याचारी, आतताई आदि प्रतीक रूपों में प्रस्तुत किया जाता है। क्या ऐसा संभव हो सकता है कि समृद्ध, वैभवपूर्ण विशाल राष्ट्र का अधिनायक केवल दुर्गुणों से भरा हो? धारा के विपरीत अनुसंधान कर लिखे प्राचीन और आधुनिक भारतीय साहित्य का हम पूर्वाग्रही मानसिकता से परे अध्ययन करें तो यह सहज ही साफ हो जाता है कि रावण भी राम की तरह ऐतिहासिक महापुरुष था। एक महान जाति और संपन्न राष्ट्र का शासक था। कथासाक्ष्यों के अनुसार लंका रावण के अधिकार में आने से पहले दैत्यों की थी। माली, सुमाली और माल्यवान नाम के तीन भाइयों ने त्रिकुट-सुबेल पर्वत पर लंकापुरी बसाई। अपने पराक्रम से तीनों ने आसपास के द्वीपों पर भी कब्जा कर लिया और लंका में स्वर्ण, रत्न, मणि, माणिक्य का विशाल भंडार इकट्ठा किया। इसी क्रम में काश्यप सागर के किनारे बसे द्वीप में स्थित सोने की खानों पर आधिपत्य को लेकर छिड़े देवासुर संग्राम माली मारा गया और दैत्यों की हार हुई। देवताओं के आतंक से भयभीत होकर सुमाली और माल्यवान पाताल लोक भाग गए। इसके बाद देवों ने अपनी सुविधानुसार कुबेर लंका का नरेश बना दिया। बाद में लंका पर दैत्यों के राज्य की पुनर्स्थापना करने की लालसा से सुमाली अपने ग्यारह पुत्रों और रूपवती कन्या कैकसी के साथ पाताल लोक में आंध्रालय आया। उसने पुलस्त्य पुत्र विश्रवा के आश्रम में शरण ली। सुमाली ने कैकसी को विश्रवा की सेवा में अर्पित कर दिया। विश्रवा कैकसी पर मोहित हो गए। उनके संसर्ग से कैकसी ने तीन पुत्रों रावण, कुंभकर्ण, विभीषण और एक पुत्री शूर्पणखा को जन्म दिया। इस तरह रावण वर्णशंकर संतान था। चूंकि लंका रावण के पूर्वजों की थी इसलिए लंका को लेकर रावण और कुबेर में विवाद शुरू हुआ। रावण लंका में ‘रक्ष’ संस्कृति की स्थापना के लिए अटल था जबकि कुबेर विष्णु का प्रतिनिधि होने के कारण ‘यक्ष’ संस्कृति ही अपनाए रखना चाहता था। बाद में पिता विश्रवा के आदेश पर कुबेर ने लंका छोड़ी और रावण लंका का एकछत्र अधिपति बन गया। इस तरह रावण ने अपने शौर्य और साहस के बल पर पार्श्ववर्ती द्वीप समूहों को जीतकर देव, दैत्य, असुर, दानव, नाग और यक्षों को अपने अधीन कर लिया और इन्हें संगठित कर ‘राक्षस’ नाम देकर ‘रक्ष’ संस्कृति की स्थापना की। उसकी विचारधारा के मूल में आर्य (देव) विरोध का लक्ष्य था। इस तरह रावण कई जातियों और उप जातियों का संगठक भी था। रावण की इस हिमाकत और बल के कारण ही उसे मारा गया। अब बात करते हैं रावण की विद्वता की। उसने वेदों की यत्र-तत्र फैली ऋचाओं को इकट्ठी कर उनका सिलसिलेवार सम्पादन किया। संस्कृत हस्तलिपियों की सूची में रावण द्वारा रचित निम्न पुस्तकें मानी जाती हैं- अंक प्रकाश (वेद), कुमारतंत्र, इंद्रजाल, प्राकृत कामधेनु, प्राकृत लंकेश्वर, ऋग्वेद भाष्य, रावण भेंट, रावणीय (संगीत), नाड़ी परीक्षा, अर्कप्रकाश, उड्डीशतंत्र, कामचाण्डाली कल्प आदि। उसने लंका में माली स्मारक, मेघनाथ भवन, अशोक वाटिका, भविय भवन के साथ पुल आदि भी बनवाए।
यहां सवाल यह उठता है कि इतने गुणों के बाद रावण महापुरुष क्यों नहीं हो सकता? राम जहां भी गए, गलत या सही तरीके से सबका ‘उद्धार’ करते गए। पूरे जीवनकाल में उन्होंने रामराज स्थापित करने और लोगों का उद्धार करने के सिवाय जनता के हितार्थ और क्या किया? आज के मानवों (रामनामी) की कारगुजारियां तो रावण को भी शमर्सार कर रही हैं। कैफी आजमी के शब्दों में कहें तो असुरों/अनार्यों की ‘जिंदगी कैद है चंद रेखाओं में सीता की तरह’ जिसे आर्यों ने कभी अपने स्वार्थ के लिए खींचा था। आइए, दीपावली के इस पर्व पर हम असत्य पर सत्य की जीत की खुशी मनाने के बजाए वास्तविक महापुरुष की याद में दिए जलाएं।

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh