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कविता
-रवि प्रकाश मौर्य
कलयुग के समय में
सतयुगी बच्चों की उम्मीद बेमानी है
कलयुग है तो
मांएं एवं बच्चे भी कलयुगी होंगे
इसी कलयुगी समय में
डिब्बाबंद दूध पीकर बड़े हुए बच्चे ने
एक दिन मां से पूछ लिया
मैं क्यों निभाऊं बेटे का फर्ज
मुझ पर तो नहीं दूध का कर्ज
तुमने मुझे पैदा किया…
अपने सुख की खातिर
तुमने मेरा गू-मूत भी नहीं किया
पहना दी नैपी, और
छोड़ दिया क्रेच में…
अपने काम पर जाने के लिए
मुझे कभी लाड़ किया, न दुलार
खिलौनों से खेल बड़ा हुआ मैं
उंगली पकड़ न चलना सिखाया तुमने
वाकर से चलना मैंने सीखा
कभी बांहों का झूला नहीं झुलाया तुमने
पालने में झूल मैं सोया
थोड़ा बड़ा हुआ तो
डाल दिया बोर्डिंग में
मैंने कभी जाना ही नहीं
कि क्या होती है ‘मां’
मैं कैसे मानूं तुम्हें अपनी मां
आखिर क्या किया तुमने मेरी खातिर
तुम्हारे अंतरंग क्षणों का प्रतिफल हूं मैं
तुमने मुझे पैदा किया अपने लिए
क्योंकि नहीं होता यदि मैं
तुम कहलाती बांझ, और
उपेक्षित होती समाज में
….
सदियों बाद किए गए
इन कलयुगी सवालों का
कोई जवाब नहीं था मां के पास
वह खामोश थी
रिश्तों के नए समीकरण से।
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