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… तो क्या दिल्ली में फेसबुक ने बनवाई ‘आप’ की सरकार

vakrokti
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लंबे समय से चल रही उठापटक व कयासों के बाद अंतत: दिल्ली में ‘आप’ ने सरकार बना ली और मैगसेसे पुरस्कार विजेता व सामाजिक कार्यकर्ता अरविन्द केजरीवाल ने मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाल ली। इससे अपने देश के इतिहास में एक नया अध्याय जुड़ गया। एक समय जब मिसाइल मैन व गैर राजनीतिक व्यक्ति एपीजेअब्दुल कलाम राष्ट्रपति बने थे, तब भी इसी तरह की एक शुरुआत मानी गई थी लेकिन वे देश व समाज को एक नई दिशा इसलिये नहीं दे सके क्योंकि वह राजनीतिक फैसले नहीं ले सकते थे। इसके बाद अगले राष्ट्रपति चुनाव में चर्चित लेखिका शोभा डे व अन्य विद्वानों ने इसी तरह गैर राजनीतिक व उद्योगपति एन नारायणमूर्ति को राष्ट्रपति बनाये जाने की चर्चा छेड़ी जबकि भाजपा ने फिर से कलाम को ही लाने की ‘चाल’ चली। यह क्रम कांग्रेस की अध्यक्षा सोनिया गांधी की एक जिद के चलते टूट गया। उन्होंने प्रतिभा पाटिल को देश की पहली महिला राष्ट्रपति बनवाकर एक इतिहास रचा… लेकिन सिर्फ इतिहास ही रचा। अब एक बार पूरी तरह गैर राजनीतिक व सामाजिक कार्यकर्ता केजरीवाल दिल्ली की कुर्सी पर काबिज हुये हैं। यह एक तरह से ‘नेताओं’ के मुंह पर तमाचा भी है इधर कुल सालों वह यही सोचने-मानने लगे थे कि देश को चलाने का ‘ठेका’ बस उन्हीं के पास है। हालांकि राजनीतिक पण्डितों को अब भी लगता है कि गैर राजनीतिक व अनुभवहीन लोग दिल्ली को कैसे चलायेंगे। शनिवार की दोपहर जब केजरीवाल व उनकी टीम ऐतिहासिक रामलीला मैदान में शपथ लेने जा रही थी, तब भी अधिकतर चैनलों पर राजनीतिक विश्लेषक बार-बार यही चीजें दुहरा रहे थे। खैर, अब दिल्ली में ‘आप’ की सरकार बन गई है और इसी के साथ ही 2014 में आगामी लोकसभा चुनाव की लड़ाई भी बेहद दिलचस्प हो गई है। भाजपा व कांग्रेस जैसी पार्टियों ने अभी से रणनीतियां बदलनी शुरू कर दी हैं तो मंझोली व छोटी-मोटी पार्टियों ने भी ‘गणित’ बैठानी शुरू कर दी है। ऐसे में सोशल साइटों पर चुनावी जंग देखने लायक होगी।
इसी बीच एक खबर आई है कि दुनिया की सबसे बड़ी सोशल मीडिया वेबसाइट फेसबुक की भारत और दक्षिण एशिया की पब्लिक पॉलिसी निदेशक अंखी दास ने आम आदमी पार्टी को ईमेल लिखकर ‘दिल्ली चुनाव में पार्टी की जीत में फेसबुक की भूमिका’ पर शोध की संभावना तलाशने की इच्छा जाहिर की है। उल्लेखनीय है कि अन्ना हजारे के नेतृत्व में जनलोकपाल के लिए शुरू हुए आंदोलन में शुरुआती स्वयंसेवक फेसबुक के जरिए ही जुड़े थे। आंदोलन के फेसबुक पेज ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ की आंदोलन को धार देने में भी उनकी बेहद अहम भूमिका रही थी। यहां गौर करने वाली बात यह है कि अरविन्द केजरीवाल ने एक साल पूर्व आम आदमी पार्टी के गठन के बाद यही तरीका अपनाया और दिल्ली के चुनाव में वह कारनामा कर दिखाया जिसने स्वयं फेसबुक को भी अपना दीवाना बना लिया। आम आदमी पार्टी के सोशल मीडिया एवं सूचना प्रौद्योगिकी विभाग की जिम्मेदारी संभाल रहे अंकित लाल भी दिल्ली में पार्टी की जीत में फेसबुक की अहम भूमिका मानते हैं। वर्तमान में फेसबुक के इस पेज से करीब साढ़े आठ लाख लोग जुड़े हैं जिनमें करीब दो लाख लोग सक्रिय हैं। यही नहीं, इस पेज से हर हफ्ते करीब साठ हजार नए लोग जुड़ रहे हैं। इसमें कोई शक नहीं कि आगामी लोकसभा चुनाव में सोशल मीडिया मुख्य भूमिका निभाने वाली है। इसी को देखते हुये ही राहुल के निर्देश पर कांग्रेस ने अपनी वेबसाइट को नया रूप दे दिया है और नई टीम गठित की है तो भाजपा भी मोदी के नेतृत्व में व उनके निर्देश पर ‘सोशल वार’ की रणनीति बना रही है। एमसीए के छात्र 22 वर्षीय हितेंद्र मेहता बीजेपी की सूचना तकनीकी इकाई के एक सदस्य हैं। वह पार्टी के इंटरनेट टीवी चैनल ‘युवा’ का काम देखते हैं। हितेंद्र के सहकर्मी 35 वर्षीय नवरंग एसबी भी पार्टी नेताओं के मुख्य बयानों को ट्विटर और फेसबुक पर डालते हैं। हितेंद्र और नवरंग बीजेपी की 100 सदस्यों वाली उस इकाई का हिस्सा हैं जिसे पार्टी की विचारधारा को सोशल मीडिया पर लोकप्रिय बनाने का श्रेय दिया जाता है। वहीं कई मुद्दों पर चोट खाने के बाद अब कांग्रेस को भी इस सोशल नेटवर्क का महत्व समझ में आ गया है। देश की सबसे पुरानी, सबसे बड़ी और शायद सबसे हठधर्मी राजनीतिक पार्टी ने दिग्विजय सिंह के नेतृत्व में 10 सदस्यों वाली संचार और प्रचार समिति कमेटी भी बनाई है। उनके अलावा इसमें मनीष तिवारी, अंबिका सोनी, ज्योतिरादित्य सिंधिया, दीपेंदर हड्डा, राजीव शुक्ल, भक्त चरण दास, आनंद अदकोली, संजय झा और विश्वजीत सिंह शामिल हैं। उनकी भी जंगी योजना तैयार हो चुकी है और अब मैदान में उतरने के लिए आला कमान की ओर से हरी झंडी मिलने का इंतजार किया जा रहा है। कांग्रेस इसीलिये सचेत हुई क्योंकि उसने कई मौकों पर सोशल मीडिया को गंभीरता से न लेने की कीमत चुकाई। मसलन- अकबरुद्दीन ओवैसी के नफरत फैलाने वाले भाषण के यू ट्यूब पर तेजी से फैलने के बाद 8 जनवरी को ओवैसी की गिरफ्तारी, अण्णा हजारे के नेतृत्व में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन जो 2011 में कई दिनों तक दुनिया में सबसे ऊपर रहने वाला ट्विटर ट्रेंड था और दिसंबर 2012 में दिल्ली गैंगरेप के खिलाफ आंदोलन जिसने सोशल मीडिया के मंचों पर लोगों की टिप्पणियों से हवा मिलने के कारण व्यापक रूप ले लिया था। हाल ही जारी एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार लोकप्रिय सोशल साइट ट्विटर पर पर दस लोकप्रिय नेताओं में शशि थरूर, नरेन्द्र मोदी, मनमोहन सिंह, अजय माकन, सुषमा स्वराज, अरविन्द केजरीवाल, उमर अब्दुल्ला, सुब्रमण्यम स्वामी, डेरेक ओ ब्रायन, वरुण गांधी का नाम शामिल है। इसमें से शशि थरूर तो ट्विटर मंत्री के रूप में जमकर ख्याति बटोर चुके हैं। ये नेता कई बातें या योजनायें इन साइटों के माध्यम से ही सबसे पहले जगजाहिर करते हैं। यहां इस बात का भी जिक्र करना चाहूंगा कि इससे पूर्व कोलकाता में ममता बनर्जी ने भी सोशल मीडिया के जरिये ही अपने विरोधी को धूम चटाई थी। तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) पहली क्षेत्रीय पार्टी थी, जिसने सोशल मीडिया को अपना हथियार बनाया। इसके पास तीन स्तरों वाली एक समर्पित टीम है। इन तीन स्तरों में पेशेवर, स्वयंसेवक व कार्यकतौ हैं जिन्हें मानदेय दिया जाता है। इस इकाई को डेरेक ओ ब्रायन ने गठित किया था जिसे तृणमूल युवा के नेता और ममता के भतीजे अभिषेक बनर्जी चलाते हैं। यह इकाई पार्टी की वेबसाइट, ट्विटर और फेसबुक को संभालने का काम करती है। इस साल पार्टी की ओर से एक डिजिटल चैनल शुरू करने की भी योजना है।
‘सोशल मीडिया की एजेंडा सेटिंग इंटरनेट ऐंड मोबाइल एसोसिएशन आॅफ इंडिया’ से मिले ताजा आंकड़ों के मुताबिक, भारत में इस समय 13.7 करोड़ लोग इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं, 6.8 करोड़ फेसबुक एकाउंट हैं और 1.8 करोड़ ट्विटर आइडी हैं। वहीं भारतीय शहरों में सबसे अधिक इंटरनेट यूजर मुंबई (68 लाख) में हैं। इसके बाद आता है दिल्ली (53 लाख) का नंबर। इसके पीछे चेन्नै (28 लाख), हैदराबाद (24 लाख), कोलकाता (24 लाख), बंगलुरू (23 लाख), अहमदाबाद (21 लाख), पुणे (21 लाख) आदि महानगर हैं। वर्तमान में अधिकतर लोगों के लिए यह सूचना का पहला स्रोत बन चुका है। यही नहीं, सोशल मीडिया का सीधा असर मुख्यधारा के मीडिया पर पड़ रहा है। कई बार इसका प्रभाव इतना अधिक हो जाता है कि यह सामाजिक परिवर्तन का वाहक बन जाता है। दिल्ली में ‘आप’ की जीत भी इसी का नतीजा है। देखा जाये तो सोशल मीडिया का सबसे ज्यादा असर युवा शहरी वोटरों पर होता है। नये वोटरों को जोड़ने की मुहिम में जो मतदाता संख्या बढ़ रही है, वह यही है। अभी तक चुनावों में इसी वोट ने पार्टियों को जिताया है। ऐसे में जब लैपटॉप-टेबलेट की बाढ़ आ रही है और सरकारें इसे मुफ्त में बांट रही हैं तब आगामी लोकसभा चुनाव में भी इसके मुख्य भूमिका निभाने की पूरी उम्मीद है।

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