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समाचार पत्र-पत्रिकाओं ने तो हद ही पार कर दी है

vakrokti
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समाचार पत्र-पत्रिकाओं में आजकल छपने वाले क्विज़, क्रासवर्ड, अंतर ढूढ़ो या चेहरा पहचानिए जैसे कॉलमों का एक बड़ा पाठक वर्ग है। यूं कहें- हर रोज पत्र-पत्रिकाओं को तमाम पाठक वर्ग सिर्फ इसलिए ही पलटता है। इन कॉलमों ने पत्र-पत्रिकाओं की प्रसार संख्‍या में भी काफी इजाफा किया है। ये कॉलम ऐसी जरूरत बनरक उभरे हैं जिन्‍हें ख़त्‍म करना मुश्किल है। और मै ख़ुद भी जब ऑफिस से घर पहुंचता हूं तो अपनी पत्‍नी को सूडोकू, क्रासवर्ड, अंतर पहचानो आदि भरते हुए पाता हूं। उसके इस चस्‍के के चक्‍कर में कई बार मुझे प्‍यार के लिए इंतजार करना पड़ता है या फिर महरूम ही रहना पड़ता है…… लेकिन क्‍या हमने कभी गौर किया है कि इसकी आड़ में हमारी किस
मानसिक सोच को उभारा जा रहा है? हम जाने-अनजाने अपने दिमाग़ को किन चीज़ों पर पर फोकस कर रहे हैं… और हम अपना मूल व्‍यक्तित्‍व खोकर किस बाजारवादी चरित्र में तब्‍दील होते जा रहे है?
“चेहरा पहचानिए” में एक ऐसा चेहरा दिया जाता है जिसमें कई चेहरे होते हैं। आंख किसी की तो नाक-कान और होंठ किसी और के। इस कॉलम में आमतौर पर हीरो या हीरोइनों के ही चेहरे शामिल होते हैं। जाहिर-सी बात है, चेहरे की पहचान वही कर सकता है जो हर हीरो-हीरोइन के नाक-कान, होंठ यानी चेहरे के हर पार्ट को बहुत गौर से देखे। इस कॉलम का चस्‍का जिसे भी लगेगा, उसकी रुचि स्‍वत: ही हीरो-हीरोइन के अंगों में बढ़ जाएगी। यहां तक तो ठीक है लेकिन एक समाचार पत्र ने तो हद ही पार कर दी। देश के सबसे बड़े समाचार पत्र में शुमार एक अंग्रेजी दैनिक ने एक कॉलम में दो बालीवुड हीरोइनों की टांगें दी और पाठकों के लिए एक मैसेज दिया कि पहचानिए किसकी टांग है ? ज़रा सोचिए! इसका क्‍या मतलब है ? यही न कि हीरोइनों की टांगों को हमें गौर से देखना चाहिए ताकि पहचान सकें कि किसकी टांग कैसी और किस तरह है। गनीमत यह रही कि बात टांगों तक ही रही, ब्रेस्‍ट या कमर-कूल्‍हों तक नहीं पहुंची। जरा सोचिए! यदि हम हर हीरोइनों को टांगों, ब्रेस्‍ट, कमर-कूल्‍हों या आंख-कान-नाक के रूप में देखें तो हमारी क्‍या मानसिकता होगी?… और यह भी सोचिए कि ऐसी स्थिति में हमारा चरित्र क्‍या बनेगा ? वैसे, उस अंग्रेजी दैनिक के लिए ये कोई नई बात नहीं है। वह तो अक्‍सर इस तरह की प्रश्‍नोत्‍तरी भी पाठकों के लिए पेश करता है जिसमें सारे सवाल सेक्‍सासन से ही जुड़े होते हैं।
दरअसल, यह क्‍यूरासिटी का खेल है जिसमें लोगों को भी बहुत मज़ा आता है। यह सब अंग्रेजी दैनिकों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि रियालिटी शो का चोला बदलकर चैनलों पर भी खूब धूम-धड़ाके से चल रहा है। जैसे पहले क्विज़ या क्रासवर्ड को हल करना अपना ज्ञान बढाने का तरीका माना जाता था, उसी तरह चैनल के शुरुआती रियालिटी शो ने भी प्रतिभा निखारने का काम किया। केबीसी और इंडियन आइडल जैसे प्रोग्राम इसी तरह के थे। लेकिन आज समाचार पत्र जहां हमें हीरोइनों की टांगें पहचानने के लिए विवश कर रहे हैं, वहीं चैनलों ने भी सच का सामना और बिग बॉस जैसे प्रोग्रामों की तरफ रुख कर लिया है। सच का सामना के सेक्‍स और बेवफाई से जुड़े बेतुके सवालों ने प्रतियोगियों को भले ही आइना दिखाया लेकिन ऐसे सवालों का समाज में जो संदेश जा रहा है, वह बेहद ख़तरनाक़ है। ऐसे सवाल लोगों को इस पर जबरदस्‍ती सोचने के लिए मज़बूर कर रहे हैं चाहे इसके बारे में वह पहले भले ही कभी न सोचे हों। यह तो एक तरह से आम आदमी की सोच पर हमला है जो चरित्र बिगाड़ने के लिए किया जा रहा है। आतंकी कैम्‍पों में एक तरीका अपनाया जाता है- यदि किसी को बेहद ख़तरनाक़ बनाना है तो सबसे पहले उसकी सोच बदलो। यदि ये अपराध है तो इसे भी अपराध्‍ा क्‍यों नहीं माना जाना चाहिए जहां आम आदमी की सोच बदलकर उसका चरित्र ही नहीं, बल्कि समाज का भी चरित्र बिगाड़ा जा रहा है। इसके जिम्‍मेदार लोगों के लिए तो दंड का प्रावधान होना चाहिए।

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