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अमरकांत के बहाने— हम या आप क्यों लिखते हैं ?
हिन्दी भाषा के प्रमुख कहानीकारों में शुमार अमरकांत जी को अभी एक दिन पहले ही ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया। आमतौर पर पुरस्कार पाने से किसी का कद बढ़ जाता है लेकिन अमरकांत का क़द इतना बड़ा है कि उन्हें पुरस्कार देकर खुद ज्ञानपीठ गौरवान्वित हो गया। आज जब अक्सर चर्चा चलती रहती है कि साहित्य का स्तर गिर रहा तो जरूरी हो जाता है कि इस मुद्दे पर बात एक बार फिर की जानी चाहिए। इस बीच अमरकांत जी के कई जगह इंटरव्यू भी पढ़े। वही वाहियात सवाल… जिसमें वास्तविक और जरूरी कहीं होते ही नहीं। इसका नतीजा यह निकलता है कि हम व्यक्ति को तो खूब मान तो दे देते हैं लेकिन उसे बिल्कुल जानते नहीं। छह-सात हो गये, जब एक बार मैं उनका इंटरव्यू लेने उनके घर गया था। तब वह इलाहाबाद के गोविंदपुर में रहा करते थे। मैं अपने विशेषांक ‘सप्त शिखरों से साक्षात्कार’ का इंटरव्यू लेने गया था। वहां उनका अपनापन, एक घरेलू सदस्य जैसा व्यवहार, बाद के दिनों में भी उनका प्यार मिलता रहा। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के छात्रों को वैसे भी वह बहुत प्यार करते थे। जब विशेषांक के विमोचन का दिन आया तो उन्हें गाड़ी में बैठाकर ले आया गया। वह न आने की स्थिति में भी आये। यहां उन्होंने जो वक्तत्व दिया, वह मेरे और मेरे साथियों के लिये शायद बहुत बड़ा था। उन्होंने कहा मैंने और मेरी टीम ने विशेषांक का जो यह काम किया है, इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के इतिहास में शायद किसी ने अभी तक नहीं किया है।
खैर, यह तो हो गई विशेषांक की बात। मूल मुद्दा तो छूट ही गया कि लोग लिखते क्यों है? … तो अमरकांत जी मेरे कई सवालों का जवाब दिये जाने के बीच एक जगह गुस्सा हो गये और एकदम कांपते हुये बोले कि कुछ लोग ऐसे सवाल पूछ लेते हैं कि उसका जवाब देने से बेहतर यह लगता है कि उसे खींचकर एक जूता मार दिया जाये। बात उठते-उठते यहां तक आ पहुंची कि वास्तव में इंटरव्यू लिये ही क्यों जाते हैं। इससे पहले भी सवाल यह कि लोग लिखते ही क्यों हैं और लोग उसे पढ़े क्यों? यह सवाल वास्तव में बहुत ही गंभीर था। यह सवाल जितना आसान लोग समझते हैं, उतना है नहीं। जरा सोचिये आज जब इंटरनेट पर साहित्य और लेखन की भरमार है तो क्या यह सवाल प्रासंगिक नहीं लगता। यह सवाल तब तो और भी होना चाहिये जब ब्लॉगरों की इतनी बाढ़ आ गई है कि उसका महत्व तक कम होने लगा है। अमरकांत से इंटरव्यू के दौरान मैंने सदी के खलनायक के रूप में प्रसिद्ध राजेन्द्र यादव का भी मैंने जिक्र किया। दरअसल, एक बार जब मैं उनसे मिलने दरियागंज के हंस ऑफिस में अपनी एक कहानी- ‘सच क्या है’ लेकर गया तो उन्होंने मुझसे बड़े अजीब सवाल पूछे। मसलन- तुम कौन-कौन से लेखकों को पढ़ते हो? तुम खुद क्यों लिखना चाहते हो… और तुम क्यों चाहते हो कि तुम्हारी कहानी हंस में क्यों छपे? बात यहां तक पहुंच गई कि कोई तुम्हारी कहानी क्यों पढ़े ? यहां भी सवाल यही आया कि आखिर हम क्यों लिखते हैं और हमारा लिखा कोई क्यों पढ़े?
अब सुनिये अमरकांत जी जवाब- यह सवाल आज के युग का नहीं है, बल्कि बहुत पहले से ही होता रहा है। उस समय जो लोग लिखते थे, उसका महत्व होता था। लेखनी वही उठाता था जो अपनी जिम्मेदारी पूरी तरह से निभाने के काबिल होता था। यह नहीं कि कलम उठाई और कुछ भी लिख मारा। तुलसीदास ने भी शायद इन्हीं प्रश्नों से झल्लाकर शायद उत्तर दिया होगा कि वह भी स्वान्त: सुखाय के लिये लिखते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि हम विचार के लिये लिखते हैं। देखा जाये तो हर रचना में कोई न कोई विचार होता ही है। समस्या यह है कि रचना कोई विचार पुस्तिका तो है नहीं। कुछ लोग खुले आम पैसे के लिये लिखने की बात करते हैं जैसे- प्रसद्धि उपन्यासकार भगवतीचरण वर्मा। देखा जो अनेक लोग अनेक उद्देश्यों से रचना करते हैं, पर क्या बात है कि जब कुछ लोग नवीनता पर जोर देते हैं तो उनकी रचनाओं में प्राचीनता के दर्शन होते हैं। जब वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात करते हैं तो उनकी कृतियों में परतंत्रता और अनुकरण की प्रवृत्तियां दृष्टिगोचर होती हैं। इसी तरह सौन्दर्यवादियों की रचनाओं में कुरूपता क्यों, कलावादियों और शिल्पवादियों में हास्यापद कठमुल्लापन क्यों, महानतावादियों में लघुता क्यों? देखा जाये तो आज के लोग- दूसरों पर रौब झाड़ने और पुरस्कार बटोरने के लिये ताकि उनका डंका पीटा जाये। बहुत पहले इलाहाबार में एक शब्द बड़े धड़ल्ले से इस्तेमाल किया गया था- बौद्धिक कचरा। कहीं हम यही तो नहीं इकटठा कर रहे हैं। हमे इस बारे में जरूर सोचना चाहिये। चलो- मार्क्सवादी आलोचक, कवि, कहानीकार और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में हिन्दी के पूर्व विभागाध्यक्ष राजेन्द्र कुमार के इन शब्दों से बात खत्म करते हैं-
हम जो लिखते हैं दवातों को लहू देते हैं
कौन कहता कि लिखने बस कलम काफी है।
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