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दैनिक जागरण में छपी कहानी ‘सृजन’ की लेखिका को
समर्पित चंद अशरार. और इसी के साथ श्रीणेश भी….
मत थमाना कलम उसके हाथ में
रहने दो कमज़ोर उसके हाथों को
उसमें चूडि़यां ही अच्छी लगती हैं
मत जगाना कोई भाव उसके दिल में
कोमल हृदय के लिये यही ठीक है
कठिन कामों के लिये वो नहीं बनी
उसके पैर इतने मज़बूत नहीं
कि वह ऊंचाई तय कर सके
उसे घर ही संवारने दो
वह उसी के लिये ही बनी है
मत खोलना उसकी आंखें
उसे पर्दे की आड़ से ही देखने दो
उन आंखों में काजल ही अच्छा लगता है
सपने नहीं
उसे ऐसा कुछ न पढ़ने देना
जिससे वह सच जान सके
सोने दो उसे, पड़ा रहने दो
बंद रहने दो उसकी सुंदर आंखें
निष्प्राण हैं उसके हाथ
उसका मन इतना मज़बूत नहीं
संस्कारों में उसे जड़ा रहने दो
यदि जाग गई न वो
तो उथल-पुथल मचा देगी
सुख-चैन हर लेगी सबका
मनोरोगियों से भर जायेगी दुनिया
मौत की भीख मांगेंगी जि़दगियां
क्रंदन से कांप उठेगी और थरथरायेगी दुनिया
सोने दो उसे.
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